जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के गर्व का अनुभव नहीं, वो कभी नहीं हो सकता उन्नत: डॉ. राजेंद्र प्रसाद  

Hindi Language: हिन्दी की खराब स्थिति पर चर्चा हिन्दी दिवस का उद्देश्य नहीं है. हिन्दी के उत्थान के लिए मैं स्वयं क्या कर सकता हूं, चर्चा इस पर केंद्रित होनी चाहिए. हिन्दी दिवस पर होने वाले विभिन्न आयोजनों से भी कोई परहेज नहीं करना चाहिए क्योंकि इन आयोजन की प्रकृति और लक्ष्य विवाद होने के बाद भी सीमित ही सही, एक जनजागरण का कार्य सम्पन्न होता है.

हिन्दी प्रेम हिन्दी दिवस पर अपने क्वथनांक तक पहुंचकर उबलता है, और धीरे धीरे हिन्दी पखवारे के समाप्त होने तक ठंडा होकर विलुप्त हो जाता है. एक व्यक्ति एक भाषा के उत्थान और संरक्षण के लिए कुछ भी क्यों करेगा? भाषा के मूल में उतरकर ही भाषा के प्रति अपने दायित्व को समझा जा सकता है.

मनुष्य चैतन्य है

क्या भाषा केवल कुछ अक्षरों, शब्दों, संकेतों, व्याकरणों इत्यादि का जड़ समुच्चय मात्र है? यदि भाषा केवल इस दृष्टि से देखी जाय तो निःसंदेह यह मनुष्य के लिए मात्र अलंकरण और उपकरण ही सिद्ध होगी. मनुष्य चैतन्य है, और वह केवल एक चैतन्य के लिए ही संवेदना का अनुभव करेगा.  

भाषा का जड़ स्वरूप संचार का एक माध्यम

क्या भाषा का एक चैतन्य स्वरूप भी है? भाषा का जड़ स्वरूप संचार का एक माध्यम है, लेकिन चेतना, विचार, संस्कृति और पहचान के निर्माण में एक सक्रिय शक्ति के रूप में भाषा कुछ और ही है. इसे हम तभी समझ सकते हैं जब हम भाषा के चेतन और अचेतन दोनों स्तरों पर काम करने की जटिल प्रक्रिया को देख पाते हैं.

भाषा का उपयोग, संस्कृति का विस्तार

भारतीय भूमि की मान्यताओं ने भाषा की उत्पत्ति के लिए ईश्वर के ब्रह्मा और शिव स्वरूपों को श्रेय दिया है. ब्रह्मा ईश्वर के उस स्वरूप से संबंधित हैं जो अपना विस्तार करता है. उन्होंने संस्कृत की रचना कर इसे ऋषियों को दिया. संस्कृत का अर्थ है परिमार्जित, परिष्कृत या सुसंस्कृत. इस प्रकार भाषा का एक उपयोग है, संस्कृति का विस्तार जिससे मनुष्य सुसंस्कृत हो सकें.

डमरू से संस्कृत भाषा के व्याकरण का जन्म

शिव ईश्वर के उस स्वरूप से संबंधित हैं जो कल्याणकारी हैं. कहते हैं उनके डमरू से संस्कृत भाषा के व्याकरण का जन्म हुआ और महर्षि पाणिनि ने इसका मानकीकरण किया. इस प्रकार भाषा का एक उपयोग है, लोकहित या लोककल्याण. यहां तक कि तमिल भाषा की उत्पत्ति भी भगवान शिव द्वारा महर्षि अगस्त्य को प्रदत्त ज्ञान से ही मानी जाती है.

चैतन्य ईश्वर से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु चैतन्य

भारतीय ज्ञान परम्परा में भाषा की उत्पत्ति ईश्वर से अपने कल्याणकारी स्वरूप के विस्तार के लिए मानी जाती है. चैतन्य ईश्वर से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु चैतन्य है. इसलिए संस्कृत को देवभाषा कहा गया और महर्षि दयानंद सरस्वती ने हिंदी को आर्यभाषा कहा. हमारी संस्कृति और हमारे पूर्वजों का इतिहास हमारी भाषाओं में अंतर्निहित है.

भारत की संस्कृति को समाप्त करना असंभव

जब किसी समूह ने भारत को अपना उपनिवेश बनाना चाहा, तब उसने सर्वप्रथम भारत की संस्कृति को समाप्त करने का हर संभव प्रयास किया. इतनी विराट संस्कृति को एक झटके में तलवार की नोंक पर या कुछ वर्षों में समाप्त करना असंभव था. इसलिए आक्रमणकारियों ने उन तत्वों को संगठित और योजनाबद्ध तरीके से समाप्त करना प्रारम्भ किया जिनसे भारतीयता को प्राणवायु मिलती थी.

ऐसा ही एक तत्त्व है, संस्कृत भाषा. इसकी विलुप्ति के प्रमुख कारणों में से एक है, शासकों द्वारा संरक्षण का अभाव. मुस्लिम शासन के बाद संस्कृत राजकाज की भाषा नहीं रही और इसे शासकों से प्रोत्साहन नहीं मिला. अंग्रेजों के आगमन पर भी यह संरक्षण समाप्तप्राय ही था.  हिन्दी भी आज राजकीय संरक्षण के लिए संघर्षरत है और राजनैतिक इच्छाशक्ति केवल सत्तासीन होने तक सीमित रह गई है इसलिए प्रमुख दल भी सत्ता के लिए राजनीति के नाम पर हिन्दी भाषा का खुलकर विरोध करने वाले राजनैतिक दलों के साथ गठबंधन धर्म निभाते है.

मुस्लिम आक्रमणों के दौरान पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों के नष्ट होने से कई संस्कृत ग्रंथ नष्ट हो गए. इसकी समन्वय की प्रवृत्ति और इसके अदभुत वैचारिक एवं सामाजिक प्रभाव के कारण इसमें लिखे शास्त्रों के अनर्गल अर्थ लोगों को समझाए गए और ब्राह्मणविरोध, आर्यविरोध और छद्मधर्मनिरपेक्षता की प्रवृत्तियों में संस्कृत को हानि पहुंचाई गई.

हिन्दी का नायक दरिद्र और कायर

हिन्दी भाषा के साथ भी विगत अनेक वर्षों से यही होता रहा है. यह राजभाषा तो बनायी गई लेकिन इसके संरक्षण, मानकीकरण और प्रोत्साहन के लिए किए जाने वाले प्रयास गंभीर न होकर उत्सवधर्मी ही रहे. इसलिए हिन्दी माध्यमों के विद्यालयों के विरुद्ध खड़े किए गए संगठित आख्यानों, चाहे वह चलचित्र के माध्यम से हो, अथवा हिंदी की कथाओं और उपन्यासों के माध्यम से, हिन्दी भाषी लोगों को पिछड़ा, अंधविश्वासी, भेदभाव और अस्पृश्यता में विश्वास रखने वाला सिद्ध कर दिया गया. हिन्दी का नायक दरिद्र और कायर बना रहा.

एक बार एक रिक्शेवाले ने मुझे पूछा कि, क्या आपके विद्यालय में मेरे बच्चे का प्रवेश हो सकता है.  मैने उनसे कहा कि, भैया प्रवेश तो हो जायेगा लेकिन आप भोजपुरी बोलते हैं, आपकी आय भी इतनी नहीं कि आप एक ट्यूटर लगाकर उसे घर पर अंग्रेजी भाषा समझा सकें, तो मेरी राय यही होगी कि आप उसे हिंदी माध्यम के विद्यालय में पढ़ाएं, मैं भी हिंदी माध्यम से पढ़ा हूं.  उनका उत्तर था कि, गरीबों के बच्चे ही क्या हिंदी माध्यम में पढ़ेंगे?

इस आख्यान ने कि, आज हिन्दी में पढ़ने वाले लोगों को नौकरी नहीं मिलती, ने भी रही सही कसर पूरी कर दी और हमारी सरकारों और नियामक संस्थाओं ने आज तक इन आख्यानों और प्रयासों पर रोक लगाने का कोई ठोस उपाय नहीं किया गया. न ही इस विषय पर कोई स्पष्टीकरण दिया गया और न ही हिन्दी और रोजगार के अंतर्संबंधों पर प्रकाश डाला गया.

विलुप्त हो गई संस्कृत

संस्कृत इसलिए भी विलुप्त हो गई क्योंकि वह एक विशेष वर्ग और समुदाय तक सीमित कर दी गई. वैसे ही आज अंग्रेजी आमजन की भाषा बनती जा रही है और हिन्दी कुछ विशेष वर्गों और समुदायों की भाषा बनती जा रही है. इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि, हिंदी की दशा शोचनीय नहीं है. परिस्थितियां बिल्कुल वैसी ही हैं. हिन्दी दिवस पर आमजन के मध्य कार्यक्रम आयोजित नहीं होते. केवल कुछ विशिष्ट लोग एक कक्ष में बैठकर हिन्दी की दुर्दशा पर गोष्ठी करते हैं.

आमजन के मध्य से संस्कृत के विलुप्त होने के कारण हमारी संस्कृति का एक बड़ा विचार, शब्दकोश, चेतना, सामूहिकता विलुप्त हो गए. धर्म, वर्ण और जाति जैसे शब्द अंग्रेजी या म्लेच्छ शब्दकोशों के माध्यम से जाने जाने लगे और उस आधार पर हमारे धर्मग्रंथों, शास्त्रों और संस्कृति की मूल भावनाओं का भोंडा भाष्य लिखकर प्रस्तुत किया जाने लगा.

उदाहरणार्थ, उपासना और धर्म के बीच की एक गहरी मोटी विभेदकारी पंक्ति मिट गई, और कार्ल मार्क्स द्वारा परिभाषित अफीम को ही हमने अपना धर्म समझना प्रारंभ कर दिया. यह बहुत छोटे और सतही उदाहरण हैं जो समझाने के लिए पर्याप्त हैं कि एक भाषा अपने साथ क्या क्या ले जाती है और हम क्या खो देते हैं?

हिन्दी हमारी सांस्कृतिक पहचान का अंतिम प्रतीक

हिन्दी हमारी सांस्कृतिक पहचान का अंतिम प्रतीक है. इस भाषा के अंदर विलुप्त संस्कृत के सभी प्राणतत्व अभी तक सुरक्षित हैं. हिन्दी के रहते अभी भी गुंजाइश है कि हम संस्कृत के विलुप्ति से खो गए राष्ट्रीय समन्वयकारी उदात्त धरोहरों को पुनः प्राप्त कर सकें और आम जनमानस में पुनः स्थापित कर सकें.

भारतीय भूमि पर सर्वाधिक सशक्त माध्यम हिन्दी भाषा

मन के अव्यक्त स्तर पर गहरे बैठी भाषा हमारे चेतन विचारों और कार्यों के बीज संस्कार को अभिव्यक्ति देती है. भारतीय संदर्भों में शब्दों, वाक्यों, भाषणों, निबंधों, विचारों इत्यादि को समझने और समझाने का एकमात्र शक्तिशाली स्रोत हिन्दी भाषा है. तर्क करने, निर्णय लेने और योजना बनाने के लिए भारतीय भूमि पर सर्वाधिक सशक्त माध्यम हिन्दी भाषा है.

हिन्दी भाषा हमारी विराट राष्ट्रीय चिति का वह अनिवार्य अंग है जो हमारी चेतना को आकार देती है, हमें दूसरे समवैचारिक भारतीय भाई बहनों से जोड़ती है और हमारी पहचान, विचार और संस्कृति को गढ़ती है. हम आज भी हिंदी में स्वप्न देखते हैं तो यह हमारे लिए शुभ लक्षण है क्योंकि हिन्दी भाषा अभी भी हमारे अचेतन मन पर शासन कर रही है.

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