ज्ञानवापी प्रकरणः बहुत कुछ कह रही नंदी की प्रतिमा भी…

वाराणसी। पांच महिलाओं ने कोर्ट में याचिका दायर कर ज्ञानवापी मस्जिद के पीछे वाले हिस्से में मां श्रृंगार गौरी की पूजा और दर्शन करने की मांग की थी। साथ ही उन्होंने प्लाट नंबर 9130 के निरीक्षण और वीडियो ग्राफी की मांग भी की थी जिसे मंजूर करते हुए कोर्ट ने निरीक्षण और उसकी वीडियो ग्राफी के आदेश दिये थे।

women who filed the petition
याचिका दायर करने वाली महिलाएं (women who filed the petition)

12 मई को वाराणसी कोर्ट की एक बेंच ने वहां वीडियो ग्राफी जारी कराने का आदेश दिया था। कमीशन ने अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंप दी है। निचली अदालत ने जो कमीशन नियुक्त किया था उसने सर्वेक्षण के दौरान मस्जिद के वजुखाने में विशाल शिवलिंग देखे जाने की बात करते हुए अदालत को सूचना दी जिसने तत्काल उस स्थल को सील करने का निर्देश दिया।

दूसरी तरफ मस्जिद की इंतजामिया कमेटी ने निचली अदालत द्वारा कमीशन के जरिये जांच करवाये जाने को अवैध निरुपित करते हुए सर्वोच्च न्ययालय में गुहार लगायी। सुप्रीम कोर्ट की ओर से ज्ञानवापी मस्जिद में सर्वे पर स्टे लगाने से यह कहकर इनकार कर दिया था कि वह फाइलों को पढ़ने के बाद ही इस पर कोई फैसला लेगा। ज्ञानवापी मस्जिद के सामने नंदी की जो मूर्ति है उसका मुंह भी वजूखाने की तरफ होने से हिन्दू पक्ष लम्बे समय से यह दावा करता आ रहा है कि मस्जिद के भीतर शिवलिंग है और औरंगजेब के शासनकाल में विश्वनाथ मंदिर पर जबरन कब्जा करते हुए उक्त मस्जिद तान दी गयी थी।

अदालत में ये दावा किये हुए भी तीन दशक से ज्यादा व्यतीत हो चुका है। मुस्लिम पक्ष अपनी सफाई में कह रहा है कि 1991 में संसद द्वारा पारित कानून के बाद अब किसी धार्मिक स्थल का स्वरूप बदला नहीं जा सकेगा। असदुद्दीन ओवैसी ने भी इसी आधार पर निचली अदालत की कार्रवाई को असंवैधानिक बताया और ये कहने का दुस्साहस भी किया कि ज्ञानवापी थी, है और रहेगी। यद्यपि शिवलिंग की जो आकृति मिली उसकी प्रमाणिकता पुरातत्व विशेषज्ञ ही साबित कर सकेंगे जिसे दूसरा पक्ष फौब्बारे का नाम दे रहा है। लेकिन शिवलिंग के अलावा मस्जिद के गुम्बद और दीवारों पर उकेरी गयी जो आकृतियां कमीशन के संज्ञान में आयी हैं वे हिन्दू संस्कृति से मेल खाती बतायी जाती हैं।

अदालत क्या फैसला देगी और 1991 का कानून उसमें कितने आड़े आयगा ये तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन मुस्लिम पक्ष इस बात को तो नहीं झुठला सकता कि वह समूचा इलाका विश्वनाथ मंदिर का है जहां इस्लामिक संस्कृति का कोई ऐतिहासिक प्रमाण ज्ञानवापी मस्जिद बनाये जाने के पूर्व नहीं मिलता। मस्जिद की तरफ मुंह किये बैठे नंदी की प्रस्तर प्रतिमा भी अपने आप में काफी कुछ कह जाती है। गत दिवस ज्यों ही शिवलिंग मिलने की बात सामने आयी त्यों ही जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने तंज कसा कि इनको हर जगह भगवान मिल जाते हैं। लेकिन क्या महबूबा और मुस्लिम धर्मगुरुओं में से किसीके पास इस सवालका उत्तर है कि मुगल शासकों द्वारा हिन्दुओं के तीन बड़े आराध्यों श्रीराम, श्रीकृष्ण और महादेव से जुड़े पवित्र स्थलों पर मस्जिद बनाने के पीछे कौन-सी सद्भावना थी ? जाहिर तौर पर ये मुगलिया सल्तनत की धर्मान्धता और हिन्दुओं को आतंकित करने के मकसद से किया गया पाप था जिसका प्रायश्चियत करने की बजाय सीनाजोरी की जा रही है।

इस्लाम के जन्म के  हजारों वर्ष पहले से अयोध्या, मथुरा और काशी सनातनी हिन्दुओं के लिए पवित्र स्थान रहे हैं। मुगल शासकों द्वारा वहां जाकर मस्जिदें बनाने का उद्देश्य हिन्दुओं को आतंकित करना ही था। महबूबा मुफ्ती ने जो बयान दिया उसमें ये भी कहा गया कि ज्यादातर विदेशी पर्यटक मुगलों द्वारा बनाये गये भवनों को देखने आते हैं। शायद उनका संकेत ताजमहल, लालकिला और फतेहपुर सीकरी जैसी इमारतों को लेकर था किन्तु उनको शायद ये पता नहीं होगा कि विदेशी पर्यटकों को बाबरी ढांचे, ज्ञानवापी तथा मथुरा में कृष्ण भूमि से सटी शाही मस्जिद देखने में कोई रूचि कभी नहीं रही।

देश के बाहर से आये लुटेरों ने हिंसा के बल पर हिन्दुओं के अनगिनत धार्मिक स्थल तोड़ दिये और अयोध्या, मथुरा तथा काशी में जान- बूझकर ऐसे स्थलों पर मस्जिदें खड़ी कीं जिनसे हिन्दू आहत होने के साथ ही आतंकित भी हों। ज्ञानवापी के साथ ही मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि की दीवार से सटाकर बनायी गयी मस्जिद भी इस्लामिक आतंक का जीता जागता प्रमाण हैं। सबसे पहले सर्वोच्च अदालत का हस्तक्षेप जरूरी है, ताकि कानून की संवैधानिक वैधता तय की जा सके।

वैसे ज्ञानवापी पर सर्वोच्च अदालत ने भी सुनवाई शुरू की है, लेकिन उसका अंतरिम आदेश है कि निचली अदालत ही इस मामले को बुनियादी तौर पर निबटाये। शीर्ष अदालत ने कथित शिवलिंग की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए प्रदेश सरकार को आदेश दिया है, लेकिन ज्ञानवापी में नमाज को भी बाधित नहीं करने का फैसला दिया है। सर्वोच्च अदालत की एक अलग पीठ बनाकर कानून की वैधता पर सुनवाई शुरू होनी चाहिए।

इतिहास गवाह है कि मुगल शासकों ने बहुत से मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवायी। अयोध्या में राम मंदिर तोड़ने के लिए कुछ इतिहासकार बाबर को दोषी ठहराते हैं तो कुछ औरंगजेब को, लेकिन यहां यह बात गौर करने वाली है कि आखिर यह दोनों, औरंगजेब और बाबर थे तो मुगल शासक ही। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को ज्ञानवापी के लिए वैसा ही फैसला लेना चाहिए जैसा भगवान श्रीराम जी की जन्मभूमि अयोध्या के लिए लिया गया है।

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